Sunday, October 11, 2015

सुविधाजनक आकांक्षायें और भय ( लोक कथा )



12 October 2015
11:45



एक बार एक बटोही अकेले शहर की ओर अपने मित्र से काम की तलाश में मिलने जा रहा था |
गर्मी का मौसम था | राह में कोई छायादार पेड़ न था | प्यासा बटोही चलता जा रहा था |
सामने उसे एक पेड़ दिखाई दिया |

बटोही ने सोंचा -
इसी पेड़ के नीचे विश्राम कर लेता हूं |

बटोही बरगद के पेड़ के नीचे बैठ गया |

बटोही ने सोचा -
काश मुझे पानी मिल जाता |

तभी बटोही ने देखा एक ग्रामीण उसकी ओर आ रहा है | उसके हाथ में जल भरा लोटा है | पेड़ के नीचे रुके बटोही को देख उस ग्रामीण ने उसे पानी पिला दिया |

थोड़ी देर में बटोही को भूख लगी | उसने सोंचा -

काश कोई उसे भोजन करा देता |

थोड़ी देर में बटोही ने देखा कि जिस ग्रामीण ने उसे पानी पिलाया था वही थाली में भोजन और एक लोटे में पानी ले कर उसकी ओर आ रहा है |

बड़े प्यार से उस ग्रामीण ने बटोही को  भोजन कराया और पानी पिलाया |

बटोही भजन कर कर के तृप्त हुआ | फिर उसने सोंचा -

अभी तो दोपहर है सिर पर सूरज तप रहा है | काश खाट मिल जाती और वह थोड़ी झपकी ले लेता |

तभी बटोही ने देखा कि वही ग्रामीण एक खाट ले के उसकी ओर आ रहा है |

बटोही को लेटने के लिये अब खाट भी मिल गयी थी |

बटोही खाट पर लेट गया और सोंचा -

जो मैं सोंचता हूं वह हो जाता है | इस सूनी जगह में मुझे आरामदायक सुविधायें मिल गयीं |

उसे ज्ञान न था कि वह कल्पवृक्ष के नीचे आराम कर रहा है | वही कल्पवृक्ष जो अपने नीचे खड़े हर व्यक्ति की मनोकामना पूरी करता है |

अब वह डर गया |

अगर यहाँ शेर आ जाये तो ?

और पल भर में एक शेर उसके सामने आ गया |

शेर ने एक दहाड़ मारी और बटोही को फाड़ कर खा गया |

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