28
September 2014
15:14
सुबह
के सात बजे थे | लगभग सात से नौ वर्ष की
आयु के तीन लड़के कंधे पर बोरा डाले गुजर रहे थे हमारे गेट के सामने से | उन लडकों
की आंखों में चमक थी और वे दुबले पतले पर स्वस्थ दिख रहे थे |
भोर भोर मेरी
टीचरी बुद्धि जागी |
" ए
बच्चो सुनो ! "
वे तीनो लड़के
तुरंत मुड़े और मेरी ओर बढ़ने लगे | उनकी फुर्ती देख के मैं समझ गयी कि वे सोंच रहे
हैं यह औरत मुझे कुछ खाने को देगी क्यूंकि मैंने कितनी ही बार अपने मोहल्ले की
दानी महिलाओं को ऐसे सड़क पर गुजरते बच्चों को पास बुला कर बिस्कुट या बचा खाना
देते देखा था |
क्यूँ मैं
किसी को निराश करूं यह सोंच मैंने तुरंत अपना प्रश्न उछाल दिया -
" स्कूल
जाते हो ? " हालांकि उनकी चाल ढाल से लग रहा था कि वे स्कूल नहीं जाते होंगे
| पर फिर मैंने सोंचा कि शायद ये बच्चे आज के दिन स्कूल न जा कर कचरा बीनने निकले
हैं | ऐसे भी अगर ये स्कूल नहीं जाते हैं तो इन्हें स्कूल जाना चाहिये | स्कूल में
फ्री खाना मिलता है ,फीस नहीं लगती है | सुबह मेरे दिमाग में बाल कल्याण का कीड़ा
कुलबुला उठा |
" नहीं ,
हम लोग स्कूल नहीं जाते हैं | " - तीनों लडकों ने एक साथ बड़ी सहजता व सरलता
से उत्तर दिया |
" तुम
लोग अपने घर में जिद करों और बोलो अपने कि हमको स्कूल जाना है | "
हमारे घर के
पास ही एक बस्ती है और हमारे मुहल्ले के लोग दबी जबान में बोलते हैं कि इस बस्ती
में चोर रहते हैं |
" ये
लड़के भी जरूर उसी बस्ती के होंगे | " मैंने सोंचा |
" हम लोग
पढ़ लिये हैं | और कितना पढेंगे | हम लोग स्कूल पास कर लिये हैं | " - तीनों
लड़के तुरंत पलटे तेजी से और हंसते हुये निकल पड़े सड़क पर आगे |
उनके उत्तर
चुभ गये मुझे और मेरी सुबह खराब हो गयी |
" क्यों
बेट्टा ! समाज सुधार हो रहा था न | पहले खुद को सुधार और राह चलते लोगों को नसीहत
देने की आदत छोड़ | "
मेरे मन ने
चुटकी ली मेरी |
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