लाठी
के सहारे सुबह की सैर को निकले थे जयराम जी |
अपने घर के
गेट के पास खड़े खड़े उसने उस बुजुर्ग को
पहचानने की चेष्टा की | कितने दिनों बाद यह चेहरा दिखा था उसे |
" कहीं
ये जयराम जी नहीं ! ... "
" किसी
का चेहरा किसी से मिलता जुलता भी तो हो सकता है ...पास आने पर पता चलेगा ..."
मन ही मन सोंचा उसने |
" कुमार
जी कैसे हैं ? " बगल से गुजरते हुये जब वे बोल पड़े तो उसकी हथेलियां स्वत:
प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गयीं |
" जयराम
जी ! " उसकी आँखों में प्रश्नवाचक चिन्ह था |
" हां !
" जब जयराम जी के मुख से निकला तब विश्वास हुआ उसे खुद पर |
उसका अनुमान
गलत न था |
" बहुत
दिन बाद देखे ?"
" बेटा !
बीमार रहता हूं ..किडनी खराब हो गयी है | "
" और
कुमार जी कैसे हैं ? " उन्होंने पिता के बारे में पुनः पूछा |
" वो तो
तीन साल हो गया चले गए | " वह आकाश की और इशारा कर के बोल पड़ी |
" अरे !
मुझे तो पता ही न चला ! .... कितनी मित्रता थी उनसे ....मैं तो यहीं दो सड़क के पार
रहता हूँ ........ " वे धीरे से बोले |
" मोबाइल
नम्बर नहीं था मेरे पास आपका .... नहीं तो मैं जरूर खबर करती आपको ..... "
उसने अपनी मजबूरी प्रकट की |
" क्रिया
कर्म यहीं हूआ क्या ? " जयराम जी फिर कुछ सोंचते सोंचते बोल पड़े |
" जी
.... दरअसल कार्ड किसको किसको भेजना है .. यह सलाह मशविरा मुझसे किसी ने नहीं हुआ
....."
" ओह
!....सुबह सुबह खबर मिली .... हां ....अकेली को कौन पूछता है बिटिया
.......................... अच्छा नमस्कार ! ...."
और जयराम
जी आगे चल पड़े | सुबह की सैर मिलाती है
मित्रों से ...उनकी खबरें भी देती है |
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