Saturday, October 26, 2013

व्यापार में भी इमानदारी ( लोक कथा )

विक्रम संवत 1740 की कथा है | एकबार गुजरात और सौराष्ट्र में अकाल पड़ा | खेत सूख गये | पशु - पक्षी सूखे के कारण मरने लगे | कितने यज्ञ व धार्मिक अनुष्ठान किये गये पर बर्षा न हुयी | किसी ने राजा से कहा  कि  अमुक व्यापारी चाहे तो वर्षा करवा सकता है | राजा उस व्यापारी के पास पहुंचे और उससे वर्षा करवाने की प्रार्थना करने लगे | अब व्यापारी बड़ा परेशान हुआ |

" हे राजन ! मैं एक आम आदमी हूं | मैं कैसे बरसा करवा सकता हूं | " उस व्यापारी ने राजा को समझाया

" क्या तुम्हें मूक पशुओं पर दया नहीं आती ? खेत सूख गये हैं | मुझे विश्वास है तुम प्रार्थना करोगे तो वर्षा जरूर होगी | " राजा ने व्यापारी से विनम्रता पूर्वक कहा |
परेशान व्यापारी घर से अपनी तराजू ले आया और खुले आकाश के नीचे खड़े हो कर प्रार्थना करने लगा |

" देवगण और लोकपाल साक्षी हैं , यदि इस तराजू से मैंने किसी को ठगा नहीं है , यदि इस तराजू से मैंने सदा ही सत्य और धर्म से वस्तुओं को तौला है तो हे देवराज इंद्र ! आप शीघ्र वर्षा कीजिये | "

व्यवसायी के मुंह से यह वाक्य निकलते ही आकाश मेघाछ्न्न हो गया | मेघों का गर्जन सुनाई देने लगा | कुछ ही मिनट में मूसलाधार वर्षा हुई | धरती शीतल हो गयी |

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